05 मई 2017: अन्य स्रोत से: मैं समायोजित शिक्षामित्रों के प्रकरण को एक अलग दृष्टि से देखता हूँ।मुझे लगता है ये कानून और न्याय के बीच की लड़ाई है। क़ानूनी तौर पर यह केस जरूर कमजोर है,परन्तु न्याय के तराजू पर बेहद मजबूत है।माननीय न्यायधीशों ने अगर क़ानून का ऑपरेशन किया तो इसकी गाज़ न्याय की बाट जोह रहे इन नवोदित शिक्षकों पर गिर सकती है।इसके विपरीत अगर वो न्याय पर जायेंगे तो उन्हें इनको हरी झंडी देनी पड़ेगी।
माननीय जजों को सोचना होगा कि आज के हालात में पौने दो लाख लोग जहाँ खड़े हैं उन्हें यहाँ कौन लाया है ? इस मामले में शिक्षामित्रों का दोष कहाँ है ?
संविधान की शपथ लेने वाली सरकार की तरफ से अगर कोई गलती हुई है तो क्या इसकी सजा शिक्षामित्रों को मिलनी चाहिए ?कप्तान को आप छोड़ देंगे और बाकियों को सूली पर लटका देंगे।ये कहाँ का इंसाफ होगा ?
संविधान की शपथ लेने वाली सरकार की तरफ से अगर कोई गलती हुई है तो क्या इसकी सजा शिक्षामित्रों को मिलनी चाहिए ?कप्तान को आप छोड़ देंगे और बाकियों को सूली पर लटका देंगे।ये कहाँ का इंसाफ होगा ?
पद और पैसा किसे अच्छा नहीं लगता। किसी को ख़जूर पर बिठाकर आप जमीन पर नहीं पटक सकते !
पन्द्रह वर्षों से भी अधिक समय से लगातार काम करने वाले इन लोगों को आप उम्र के इस पड़ाव पर घर नहीं बिठा सकते। ऐसा करना इनके मान सम्मान और स्वाभिमान के साथ क्रूर मजाक होगा।
इनके विरुद्ध होने वाले फैसले से क़ानून की जीत हो सकती है पर निश्चय ही ये न्याय की एक बड़ी हार होगी। मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि लाखों प्रतिभाशाली युवाओं का हक़ मारा गया है पर इसके लिए ये लोग ज़िम्मेदार नहीं हैं।
वोट की राजनीति इन सारी समस्याओं की जड़ में हैं। कार्यपालिका के कृत्यों और गुनाहों के लिए इतने परिवारों को मानसिक और आर्थिक आघात पहुँचाना एक तरह का judicial murder होगा।
उच्चतम न्यायालय को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 की शक्तियों का प्रयोग इस वाद में करना चाहिए। कार्यपालिका को भविष्य के लिए हिदायत देते हुए इसमें समायोजित शिक्षामित्रों को राहत दी जानी चाहिए। ये मेरी निजी राय है। मेरी शुभकामनायें समायोजित शिक्षकों के साथ हैं।
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